मैं कुछ न कह पाई, दुखी हो गई। यह बात अगर किसी लड़के या किसी बड़ी उम्र की औरत ने कही होती तो मैं उन्हें उल्टे चार बातें और सुनाकर आती। यह लड़कियां तो मेरी ही उम्र की थीं, उनकी ऐसी सोच ने मुझे परेशान और चिंतित कर दिया।
एक औरत होने के नाते हमारी सुरक्षा ज़रूरी है पर मेरा यह भी मानना है कि लड़कों को भी यह सिखाया जाना चाहिए कि औरत कोई 'चीज़' नहीं है। लड़कियों को हर समय सावधान रहने और खुद को पूरा ढके रखने की सलाह देने के बजाय लड़कों को उनके साथ इज़्ज़त से पेश आना भी सिखाना होगा। मैंने देखा है कि जो लोग खुद को बहुत मज़हबी और धार्मिक बताते हैं, वही लोग अक्सर रोज़मर्रा की ज़िंदगी में अपने उसूलों पर नहीं चलते।
मैंने जहां रहती हूं, वहां बहुत से लड़के मज़हबी रीती-रिवाज़ों का पालन करने के लिए 'जमात' में जाते हैं। वहां वो धार्मिक बातें करते हैं और बाहर निकलकर स्कूटर पर लड़कियों को छेड़ते हुए घूमते हैं, उन्हें गंदी नज़रों से सर से पाँव तक ताड़ते हैं।
मेरी बहुत सी दोस्तों को ऐसी छेडख़ानी का सामना करना पड़ा है, मैं भी बहुत बार सताई गई हूं। यह सब तभी ख़त्म हो सकता है जब लड़कों को यह बताया जाए कि उन्हें ऐसा नहीं करना चाहिए। लोग बदलाव की बड़ी-बड़ी बातें करते हैं, मेरे दोस्त भी ऐसी डींगें हांकते हैं, पर दुनिया में बदलाव लाने के लिए पहले खुद को बदलना पड़ेगा।
अब मैं जानती हूं कि मेरा ऐसा सोचना गलत था। मुझे इस बात का एहसास है कि हर व्यक्ति को, भावनात्मक रूप में, किसी न किसी सहारे की ज़रुरत होती है। मैं अब लोगों को आंकती या जांचती नहीं, बल्कि यह समझने की कोशिश करती हूं कि उन्होंने यह कदम क्यों उठाया होगा? कोई हमारे बारे में बिना कुछ जाने हम पर उंगली उठाने लगे तो बहुत तकलीफ होती है। यह बात मुझे तब बेहतर समझ आई जब मैंने खुद नकचढ़े लोगों की पैनी आँखों का सामना किया।
इसने इतने कम कपड़े क्यों पहने हैं? इसने खुद को अच्छी तरह से ढका क्यों नही हैं?" मुझे एहसास हुआ कि कपड़ों का चुनाव तो उसे पहननेवाले की पसंद या नापसंद है। जो मैंने पहना है, वह मेरी पसंद है। हम अपने कपड़ों के बारे में क्यों बात कर रहे हैं? क्यों? मुझे लगता है, अक्सर समस्या की असली जड़ है हमारी सोच, न कि वो कपड़े जो हमने अपने बदन पर पहन रखे हैं। पड़ोसी आए दिन मेरे पिताजी से कहते, "मुल्ला जी, आपने तो दाढ़ी बढ़ा रखी है पर आपकी बेटियां ये किस किस्म के कपड़े पहनती हैं? ज़रा ज़्यादा ही नए ज़माने की हैं ये लड़कियां।" मैं रोज़ अपने पिताजी को समझाती हूं, बात नए ज़माने के कपड़ों की नहीं है, बात है ऐसी कोशिश करने की, जिस से हमारी सोच बेहतर बने।
बचपन से ही हमें खुद के बारे में और अपने शरीर को लेकर शर्मिंदगी महसूस कराई गई, ढेर सारे कपड़ों से ढक कर रखा गया। पहली बार जब मुझे एक लड़के ने नापसंद किया था तब उसे मेरे शरीर की बनावट में खोट दिख रहा था, मैं उसे सुन्दर नहीं लगी थी शायद। यह सुनकर मेरा दिल टूट गया। मैं उस सदमे से बाहर तो आ गई पर इस घटना से 'मेरी खुद के बारे में अपनी सोच' को जो धक्का लगा था, उसे मैं भूल नहीं सकती।