कहकशां की कहानी
हेलो! मेरा नाम कहकशां है। भारत में रहनेवाली 21 साल की मुस्लिम औरत होने के नाते, मैं खुद को अपनी अलग-अलग पहचानों के बीच बंटा हुआ पाती हूं। ये है मेरी कहानी - जिसमें आप देखेंगे कहां से मेरा सफ़र शुरू हुआ, मैं कहां जा रही हूं, और मेरी बदलती राहें। ये राहें मुझे उस मज़िल की तरफ़ ले जाएंगी जहां मैं अपनी पहचान खुद ढूंढूंगी।
जो मेरे साथ हो रहा है, क्या दूसरी लड़कियों के साथ भी वैसा ही होता है? अगर उनके साथ ऐसा हो रहा होगा, तो शायद मेरी ही तरह वो भी इस बात से अनजान होंगी।
दूसरी लड़कियों के साथ भी ऐसा होता होगा पर वो शायद इससे बेखबर हैं। शुरुआत में, जो कुछ हो रहा था वह मुझे भी समझ नहीं आया था।
शुरुआत में, जो कुछ हो रहा था वह मुझे भी समझ नहीं आया था।
बढ़ती उम्र के साथ मेरे शरीर में भी बदलाव आने लगा। मैं बाहर जाकर पहले जैसे खेल नहीं सकती थी। दोस्तों में अगर कोई लड़का था, तो उससे मिलने की मनाही हो गई।
ठीक से बैठो।
दुपट्टा लो।

सीने को हमेशा ढक के रखा करो।

रात में बाहर मत जाओ।
तुम अपनी हद पार कर रही हो।

तुम बहुत ज़्यादा बोलती हो। ज़रूरत से बहुत ज़्यादा बोलती हो...
बड़े होते वक़्त मेरे बहुत सारे दोस्त लड़के थे। मुझे उन सब से अपनी दोस्ती तोड़ देनी पड़ी। आज वो जब मुझे दिखते हैं तो पता चलता है कि उनमें कइयों की शादी हो गई है।

 आमना-सामना हो जाए या बगल से गुज़र जाएं तो हम आपस में बात भी नहीं करते। खैर, बातचीत तो कई सालों से बंद है हमारी। 
मुझे लगता था 'भेदभाव' सिर्फ़ किताबों में दिखनेवाला शब्द था, हमारी ज़िंदगी से इसका कोई लेना-देना नहीं था। किसी के साथ अगर ऐसा होता भी था तो वो लोग कोई और होंगे, मेरे अपने नहीं। एक दिन मेरी यह ग़लतफ़हमी दूर हुई और असलियत मेरे सामने आई। मुझे एहसास हुआ कि भेदभाव और असमानता जैसी बातें ख़याली नहीं थीं, बल्कि मेरी अपनी दुनिया में मौजूद एक कड़वी हक़ीक़त थी।
जब पहली बार इस सच्चाई से मेरा सामना हुआ तब मैं 15 साल की थी। मेरी राजनीति विज्ञान (पोलिटिकल साइंस) की टीचर मिसेज़ जोशी, क्लास में समानता का पाठ पढ़ा रहीं थीं। उन्होंने रोज़मर्रा की ज़िंदगी से उदाहरण दिए ताकि हम उन्हें बेहतर समझ सकें। मैंने उनकी इस दलील पर सवाल उठाए तो लोगों ने यह कह कर मुझे बदनाम कर दिया कि, "वो अच्छी लड़की नहीं हैं"।
उनके हिसाब से अच्छे होने का मतलब है घर पर रहो, लड़कों से बात मत करो, बहस न करो और ज़रुरत से ज़्यादा बात न करो - बरसों से चले आ रहे, दम घोंटनेवाले, पुरुषसत्तावादी (पेट्रिआर्कल) विचारों की देन थे ये विचार। मैंने अपने आप को बदलने की कोशिश की, एक 'अच्छी लड़की' बन के दिखाना चाहा।
मेरी परवरिश मुस्लिम समुदाय में हुई है, मुझे एक 'अच्छा मुसलमान' बनने की शिक्षा दी गई थी। हर धर्म में ऐसी बातें अपने ढंग से सिखाने का रिवाज़ होगा। मुझे सात या आठ अलग-अलग मदरसों में भेजा गया क्योंकि मैं पढ़ाई में कमज़ोर थी। इसी वजह से मुझे बहुत सज़ा भी भुगतनी पड़ी। सबकुछ एक बोझ सा लगता था, मैं सोचती थी कि मैं यह सब झेल नहीं पाउंगी। मुझे हमेशा याद दिलाया जाता कि मुझे 'मखना' (स्कार्फ़) और लंबे सलवार-कमीज पहन कर हमेशा खुद को ढक कर रखना है। मैंने आजतक कहीं नहीं पढ़ा कि ऐसा करना ज़रूरी है और यह एक 'इकलौता' या 'सही' तरीका है अपनी अच्छाई दिखाने का। कौन अपने मज़हब के प्रति अपनी श्रद्धा को किस तरह साबित करता है, इससे किसी का क्या लेना देना - इस बात को लेकर मेरी अक्सर लोगों से बहस हो जाती थी। 
पिछले साल मार्च के महीने में, इस पैंडेमिक के दौरान, दिल्ली की 'तबलीग़ी जमात' वाली घटना की वजह से, मुसलमानों के ख़िलाफ़ एक नफ़रत की लहर सी चल पड़ी थी। मेरे कुछ दोस्तों ने भी सोशल मीडिया पर मुसलमानों को आतंकवादी करार देनेवाले स्टेटस डाले थे। इससे मुझे हैरानी हुई और मैं डर गई। 

हमें कैसे रहना चाहिए, कैसा बर्ताव करना चाहिए, इस पहचान की कसौटी पर खरा उतरने के लिए मुझे रोज़ खुद से और दूसरों से लड़ना पड़ता है। इससे मेरे मानसिक स्वास्थ्य पर गहरा असर पड़ा है। मेरे ज़हन में बहुत सारे सवाल उठ खड़े हुए हैं।

मैं किसी एक बात या तरीके को चुनना नहीं चाहती, पर मुझे आए दिन अपनी पहचान को चुनने के फैसले लेने पड़ते हैं। 

मेरी उम्र 11 साल थी। मेरे घर के पास एक बगीचा था। एक शाम, 9:30 बजे, मैं अपने दोस्तों के साथ वहां खेल रही थी। मेरे चाचाजी भी अक्सर शाम को उस पार्क में लूडो खेलने आते थे। पता नहीं उन्हें क्या हुआ, उस शाम वो दनदनाते हुए मेरे पास आए। मेरे दोस्तों के सामने, जिनमें से ज़्यादातर दोस्त लड़के थे, मुझे डांटने लगे, "घर जाओ। तुम लड़की हो, तुम्हें यहां नहीं खेलना चाहिए।" यह कहकर, वो मुझे मेरी बाँह पकड़कर, घसीटते हुए घर ले गए। मुझे बहुत अजीब लगा क्योंकि उस दिन तक, न मेरी मां और न मेरे पिताजी ने कभी मुझे बाहर जाने से मना किया था।
अगली सुबह पूरे घर का नक़्शा ही बदल गया था। मेरी मां भी मुझ से नाराज़ थी, "आज के बाद तुम रात में बाहर खेलने नहीं जाओगी।" मैंने उनसे इसका कारण पूछा, "तुम्हारे चाचा जी हम पर चिल्ला रहे थे। इतनी रात गए, तुम्हारा इस तरह बाहर खेलना अच्छा नहीं है। उस दिन के बाद से, मुझे रात के सिर्फ़ 9 बजे तक ही बाहर खेलने की इजाज़त थी। मैं देखती रहती, लड़के रात के 11-12 बजे तक धमाचौकड़ी मचाते, खेलते रहते। यह बात मुझे बहुत गलत लगती थी। 
मैं जब 15 साल की थी, तब मैं अपनी क्लास में तीसरे नंबर पर आई। सबको बड़ी हैरानी हुई। मैं पढ़ने-लिखने में अच्छी नहीं थी, इसलिए यह बात और भी ख़ास थी। घर पर मेरी बहुत तारीफ़ हुई! मेरी मां बहुत खुश थीं। उन्होंने दोस्तों और रिश्तेदारों में मिठाइयां बांटी।
 मेरी एक आंटी ने बड़ी बेपरवाही और बेरुख़ी से कहा, "इससे क्या होता है? ये कौन सी बहुत बड़ी बात है? नंबर ही तो है! मेरे बेटे को देखो, वो तो खेल-कूद में भी अव्वल आता है!"
यह सुन कर मुझे बहुत बुरा लगा क्योंकि इसके बाद मेरी मां का ख़ुशी से भरा चेहरा मुरझा कर रह गया। मैं यह जानती थी कि अगर मुझे मौका दिया जाता तो मैं इससे भी ज़्यादा नंबर लाती और साथ ही साथ खेल-कूद में भी कुछ कर दिखाती। मुझे मौका ही नहीं दिया गया! इस हादसे के बाद मैं अपनी ही नज़रों में थोड़ी गिर गई। उसके बाद हर साल, अपनी पढ़ाई के दौरान, मैं बहुत अच्छे नंबरों से पास हुई। वैसे ही, जैसे एक 'अच्छी लड़की' को होना चाहिए!
मैं बड़ी हो गई और कॉलेज जाने लगी।
मुझे याद है, एक दिन मैं कॉलेज जा रही थी। मैंने जींस और उसके ऊपर एक ब्लाउज़ पहन रखा था। बस-स्टॉप पर खड़ी थी। दो लड़कियां भी वहीं बैठी थीं। उन्होंने हिजाब पहन रखा था। मैं उनके पास पहुंची तब उन्होंने मुझे देख कर गुस्से से मुँह बनाया और कहने लगीं कि मैं उन लड़कियों में से हूं जो लड़कों का ध्यान अपनी तरफ खींचना चाहती हैं।
मैं कुछ न कह पाई, दुखी हो गई। यह बात अगर किसी लड़के या किसी बड़ी उम्र की औरत ने कही होती तो मैं उन्हें उल्टे चार बातें और सुनाकर आती। यह लड़कियां तो मेरी ही उम्र की थीं, उनकी ऐसी सोच ने मुझे परेशान और चिंतित कर दिया।

एक औरत होने के नाते हमारी सुरक्षा ज़रूरी है पर मेरा यह भी मानना है कि लड़कों को भी यह सिखाया जाना चाहिए कि औरत कोई 'चीज़' नहीं है। लड़कियों को हर समय सावधान रहने और खुद को पूरा ढके रखने की सलाह देने के बजाय लड़कों को उनके साथ इज़्ज़त से पेश आना भी सिखाना होगा। मैंने देखा है कि जो लोग खुद को बहुत मज़हबी और धार्मिक बताते हैं, वही लोग अक्सर रोज़मर्रा की ज़िंदगी में अपने उसूलों पर नहीं चलते।

मैंने जहां रहती हूं, वहां बहुत से लड़के मज़हबी रीती-रिवाज़ों का पालन करने के लिए 'जमात' में जाते हैं। वहां वो धार्मिक बातें करते हैं और बाहर निकलकर स्कूटर पर लड़कियों को छेड़ते हुए घूमते हैं, उन्हें गंदी नज़रों से सर से पाँव तक ताड़ते हैं।

मेरी बहुत सी दोस्तों को ऐसी छेडख़ानी का सामना करना पड़ा है, मैं भी बहुत बार सताई गई हूं। यह सब तभी ख़त्म हो सकता है जब लड़कों को यह बताया जाए कि उन्हें ऐसा नहीं करना चाहिए। लोग बदलाव की बड़ी-बड़ी बातें करते हैं, मेरे दोस्त भी ऐसी डींगें हांकते हैं, पर दुनिया में बदलाव लाने के लिए पहले खुद को बदलना पड़ेगा।

अब मैं जानती हूं कि मेरा ऐसा सोचना गलत था। मुझे इस बात का एहसास है कि हर व्यक्ति को, भावनात्मक रूप में, किसी न किसी सहारे की ज़रुरत होती है। मैं अब लोगों को आंकती या जांचती नहीं, बल्कि यह समझने की कोशिश करती हूं कि उन्होंने यह कदम क्यों उठाया होगा? कोई हमारे बारे में बिना कुछ जाने हम पर उंगली उठाने लगे तो बहुत तकलीफ होती है। यह बात मुझे तब बेहतर समझ आई जब मैंने खुद नकचढ़े लोगों की पैनी आँखों का सामना किया।
इसने इतने कम कपड़े क्यों पहने हैं? इसने खुद को अच्छी तरह से ढका क्यों नही हैं?" मुझे एहसास हुआ कि कपड़ों का चुनाव तो उसे पहननेवाले की पसंद या नापसंद है। जो मैंने पहना है, वह मेरी पसंद है। हम अपने कपड़ों के बारे में क्यों बात कर रहे हैं? क्यों? मुझे लगता है, अक्सर समस्या की असली जड़ है हमारी सोच, न कि वो कपड़े जो हमने अपने बदन पर पहन रखे हैं। पड़ोसी आए दिन मेरे पिताजी से कहते, "मुल्ला जी, आपने तो दाढ़ी बढ़ा रखी है पर आपकी बेटियां ये किस किस्म के कपड़े पहनती हैं? ज़रा ज़्यादा ही नए ज़माने की हैं ये लड़कियां।" मैं रोज़ अपने पिताजी को समझाती हूं, बात नए ज़माने के कपड़ों की नहीं है, बात है ऐसी कोशिश करने की, जिस से हमारी सोच बेहतर बने।

बचपन से ही हमें खुद के बारे में और अपने शरीर को लेकर शर्मिंदगी महसूस कराई गई, ढेर सारे कपड़ों से ढक कर रखा गया। पहली बार जब मुझे एक लड़के ने नापसंद किया था तब उसे मेरे शरीर की बनावट में खोट दिख रहा था, मैं उसे सुन्दर नहीं लगी थी शायद। यह सुनकर मेरा दिल टूट गया। मैं उस सदमे से बाहर तो आ गई पर इस घटना से 'मेरी खुद के बारे में अपनी सोच' को जो धक्का लगा था, उसे मैं भूल नहीं सकती। 


मैं खुद में बहुत बारीकी से गलतियां ढूंढती हूं पर साथ ही साथ अपना हौसला भी बढ़ातीहूं। अगर मैं बहुत दुखी हूं तब मैं खुद से बात करती हूं और उन बातों को रिकॉर्ड करती हूं। इससे मुझे पता चलता है कि मैंने कहां गलती की है,कहां बेरुखी से पेश आई हूं या कहां मुझ में हमदर्दी की कमी थी।

मेरी माँ दूसरों के घरों में सफ़ाई का काम किया करती थीं। उस समय उन्होंने बहुत बुरे दिन देखे हैं। वो हमेशा यही चाहती थीं कि उनकी बेटियों का भविष्य अच्छा हो, उन्हें वैसे दिन न देखने पड़े। मेरी मां में आत्मविश्वास की कमी नहीं है। बड़े होते समय उनके सर पर पिता का साया नहीं था, कम उम्र से ही वो दुनिया का सामना करना सीख गई थीं। वो जब बहुत छोटी थीं, तभी उनके पिताजी उनके परिवार को छोड़कर चले गए थे। उन्हें अपनी मां की देखभाल बहुत छोटी उम्र से करनी पड़ी थी। आज, वो सफ़ाई के काम के साथ-साथ 'वेस्ट-मैनेजमेंट' के बारे में भी बहुत गर्मजोशी से काम करती हैं। हमारे समुदाय में एक लोकल ग्रुप है जो आसपास के इलाके की सफ़ाई के लिए बढ़-चढ़ कर काम करता है, मेरी मां भी उस ग्रुप का हिस्सा है।

मेरी मां कभी स्कूल नहीं गई पर उन्होंने तीसरी क्लास तक की पढ़ाई अपने आप की है। उन्होंने सिलाई का काम खुद सीखा और अपनी रोज़ी जुटाई। खुद के कमाए पैसों से उन्होंने हमें स्कूल भेजा, हमारी यूनिफार्म खरीदी और हमारी पढ़ाई का खर्च उठाया। ऐसा करने के लिए कभी-कभी उन्हें ये पैसे पिताजी से छिपा कर भी रखने पड़ते थे।
कल मेरे भाई का जन्मदिन था। हम सभी बहनों ने वेस्टर्न स्टाइल के कपड़े पहने थे। हमने एक रेस्टोरेंट में जाकर उसका जन्मदिन मनाने का प्लान बनाया। हमारा जैसा मन किया हमने वैसे कपड़े पहने क्योंकि सिर्फ़ हम लडकियां ही जा रही थीं, माँ-पिताजी साथ नहीं थे।
अचानक पिताजी बोले कि वो भी हमारे साथ चलेंगे। हम जब भी उनके साथ कहीं जाते हैं तब ज़रा अलग किस्म के कपड़े पहनते हैं, सलवार-सूट या पूरी बांह के कुर्ते। वो जब आए तो हम बहनों ने एक-दूसरे की तरफ़ देखा और सोचा' अब क्या किया जाए'। उन्होंने आकर जब हमें देखा तो उन्होंने हमारा जामा मस्जिद जाने का प्लान कैंसल कर दिया।
वो बोले, "चलो कहीं और चलते हैं!" मुझे बड़ी हैरानी हुई कि उन्होंने हमारे कपड़ों की तरफ़ ध्यान न देकर कहीं और चलने की बात कही। मैंने उनसे कहा, "हम क्या पहनते हैं वह अहम नहीं है, उससे ज़्यादा ज़रूरी है इस बात का ख़याल रखना कि हम क्या सोचते हैं। अगर हमारा मन और हमारे ख़याल साफ़ हैं तब हमें किसी को कुछ साबित करने की ज़रुरत नहीं है। आप हमारे साथ हैं, हम आपके साथ हैं, साथ मिलकर चलेंगे।"

हम जामा मस्जिद भी गए, हमने रेस्टोरेंट में खाना भी खाया, और पिताजी ने हमारे साथ फोटो भी खिंचवाए। हमने बहुत मज़े किए। जामा मस्जिद जाने के लिए जब हम घर से निकले तब हमारी एक आंटी ने मुंह भी बनाया। इसके बावजूद, हमारे पिताजी हमारे साथ सिर ऊंचा करके खड़े रहे। उस खूबसूरत लम्हे को मैं कभी नहीं भूल सकती।

कई मायनों में मेरी माँ और मेरे पिताजी ने पुरानी सोच के एक सांचे को तोड़ा है, नई सोच को अपनाया है। उनकी जनरेशन के लोगों की एक प्रॉब्लम है – अपनी सोच के कारण वो किसी को भी बेवजह बदनाम कर देते हैं। ऐसा नहीं है कि मैं और मेरे माता-पिता एक-दूसरे की हर बात से सहमत हैं। हम में बहस होती है पर मैं जानती हूं कि वो मेरे साथ हैं, मुझे उनका सहारा है। इस बात की वजह से मेरा आत्मविश्वास और बढ़ जाता है। मैं जब अपनी बहनों की ज़िंदगियों को देखती हूं, तो मुझे फ़ख़्र होता है। मुझे नाज़ है उन पर! मैं अपनी ज़िंदगी में कुछ हासिल करना चाहती हूं - अपनी बहनों के लिए और सभी लड़कियों के लिए। जहां उम्मीद कायम है, वहीं उम्मीद है कि कुछ बदलेगा। एक परिवर्तन आएगा!
जब मैं मुड़ कर अपनी ज़िंदगी को देखती हूं तब मुझे अपना पुराना रूप दिखता है - एक डरी और सहमी सी लड़की जिसमें अपनी आवाज़ उठाने का साहस भी नहीं था। लेकिन अब मुझमें इतना आत्मविश्वास आ गया है कि मैं अपनी कहानी आपको सुना पाऊं। यह सब तभी मुमकिन हुआ जब मैंने दूसरों के प्रति अपनी ही सोच पर सवाल किए। इससे मेरे सोचने और दुनिया को देखने का नज़रिया बदल गया।
कहकशां दिल्ली में इतिहास के विषय में अपनी स्नातकोत्तर डिग्री (मास्टर्स) की पढ़ाई कर रही है। वह एक स्थानीय एन जी ओ (NGO) में पार्ट-टाइम नौकरी करती है। इस एन जी ओ (NGO) का काम उसके समुदाय में लड़कियों के नेतृत्व को बढ़ाने के क्षेत्र पर केंद्रित है।
कथाकार
कहकशां
शोधकार्य
फेथ गोंज़ाल्वेज़
कला एवं चित्र
गौरव शर्मा
मीडिया उत्पादन
हिरेन कानगड़